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तारीकी

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चौदस की ये रात अँधेरी  हौले से  अपनी स्याही में उसके मन को डुबा रही है उसका जीवन डुबा रही है आसमान से गुम है चंदा।    वो बेसुध-बेहोश ज़रा-सा नींद में है और होश ज़रा-सा बालकनी पे लटके  दुनिया देख रहा है।  बेसुध इतना है कि नीचे गिर सकता है इक मामूली धक्के से वो मर सकता है होश में इतना है कि ये सब सोच-समझ लेन के बाद भी वहीं खड़ा है. . . जबकि इस सुनसान रात में ये अपनी माशूकाओं को ख़त लिख सकता है, बना के दो कप कॉफी  अपने हैंगओवर से लड़ सकता है, पन्ने अपनी डायरियों के  नीले रंग से भर सकता है, बढ़ी हुई दाढ़ी ट्रिम कर के थोड़ा-बहुत संवर सकता है, अपने जीवन की तारीकी दोनों हाथ लुटा सकता है, भूले-बिसरे यारों को  खुद अपनी तरफ से फोन मिलाकर  सब शुबहात मिटा सकता है... काश... काश वो थोड़ा और होश में आ जाए काश वो इन सारे कामों को निपटाए या फिर उस पर  और बेहोशी तारी हो भूल जाए सब, इस हद तक सिर भारी हो   भूल जाए ये बात कि वो अगले पल कुछ भी कर सकता है वो सोना ही चुन ले जबकि वो अगले पल मर सकता है सोने से ये रात मेहरबाँ हो जाएगी  सोने से सब प...