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Showing posts from 2022

तारीकी

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चौदस की ये रात अँधेरी  हौले से  अपनी स्याही में उसके मन को डुबा रही है उसका जीवन डुबा रही है आसमान से गुम है चंदा।    वो बेसुध-बेहोश ज़रा-सा नींद में है और होश ज़रा-सा बालकनी पे लटके  दुनिया देख रहा है।  बेसुध इतना है कि नीचे गिर सकता है इक मामूली धक्के से वो मर सकता है होश में इतना है कि ये सब सोच-समझ लेन के बाद भी वहीं खड़ा है. . . जबकि इस सुनसान रात में ये अपनी माशूकाओं को ख़त लिख सकता है, बना के दो कप कॉफी  अपने हैंगओवर से लड़ सकता है, पन्ने अपनी डायरियों के  नीले रंग से भर सकता है, बढ़ी हुई दाढ़ी ट्रिम कर के थोड़ा-बहुत संवर सकता है, अपने जीवन की तारीकी दोनों हाथ लुटा सकता है, भूले-बिसरे यारों को  खुद अपनी तरफ से फोन मिलाकर  सब शुबहात मिटा सकता है... काश... काश वो थोड़ा और होश में आ जाए काश वो इन सारे कामों को निपटाए या फिर उस पर  और बेहोशी तारी हो भूल जाए सब, इस हद तक सिर भारी हो   भूल जाए ये बात कि वो अगले पल कुछ भी कर सकता है वो सोना ही चुन ले जबकि वो अगले पल मर सकता है सोने से ये रात मेहरबाँ हो जाएगी  सोने से सब प...

आज़ादी!!!

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#समीक्षित ❤️ पच्चीस बरसों में पहली बार पन्द्रह अगस्त वाले दिन सफर किया. . . घर से कानपुर आया। रास्ते में बीसियों रैलियाँ मिली, तिरंगा लहराते सैकड़ों लोग दिखे। छतों पर हवा से बतकही में लगे हजारों ध्वजों को देखकर मन बारम्बार रोमांचित होता रहा।  घर से निकलने की जल्दी में पानी की बोतल रखना भूल गया। रास्ते में पानी साथ न होना कई बार परेशानी का सबब बन जाता है क्योंकि प्यास लगने पर मन पैक्ड वॉटर लेने और नहीं लेने के द्वंद्व में पड़ जाता है। बीस रुपये की बोतल लेना कई बार  फिजूल लगता है। अब अक्सर मैं पानी के बजाय छाछ, लस्सी या दूध ले लेता हूँ। पहले कोल्ड ड्रिंक ले लिया करता था पर इधर कुछ दिनों से उसको भी कम किया है। कानपुर तक आते-आते रास्ते में कई जगह बारिश मिली। रुई के फाहों से बादल हवा के साथ-साथ गिरते-पड़ते-उड़ते भागे जा रहे थे जैसे बूँदी बंटने के बाद प्राइमरी स्कूलों के बच्चे भागते हैं। ये छुट्टी होते ही घर की ओर भागने का सुख भी केवल प्राइमरी और उसके जैसे सीमित पहुंच वाले स्कूल के बच्चों को ही नसीब है वरना बढ़ते कॉन्वेंटीकरण में बच्चे या तो स्कूल बस में सवार हो जाते है या फिर खड़े ...

आपको पतंग उड़ाना आता है?

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आसमान में उड़ती पतंगें मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम नहीें! और उनको उड़ाने में लगे सधे हुए हाथ किसी जादूगर के जैसे लगते है हमेशा।  तीन बरस पहले की बात है एक शाम जब मैं पनकी नहर के किनारे बैठा था , एक सात-आठ बरस के बच्चे ने मेरे पास आकर कहा कि मैं उसे पतंग उड़ाना सिखाऊँ। मैं पल भर को उस बच्चे की आँखों में झाँककर ये समझने की कोशिश करने लगा कि आख़िर उसे मेरे भीतर कौन सा पतंगबाज़ दिखाई दे गया।  मैंने उसकी गर्दन को नीचे करते हुए धीरे से उसके कान में कहा- मुझे पतंग उड़ाना नहीं आता। वो लगभग चौंक गया। संभवतः उसने अपने से बड़े लगभग सभी लोगों को पतंग उड़ाते देखा होगा। उसने कहा कि जब वो अपने गाँव जाएगा तब चाचा से पतंग उड़ाना सीखेगा। उसने ये भी कहा था कि वापस आकर मुझे भी पतंग उड़ाना सिखाएगा पर . . .  ये न थी हमारी क़िस्मत ! मुझे पतंगे उड़ाना नहीं आता। पतंग ही क्या , मुझे कंचे खेलना , गुल्ली-डंडा खेलना , लट्टू नचाना (आदि) नहीं आता। इस तरह के खेलों के लिए हमे घर से छूट नहीं मिली थी । कथित रूप से ये खेल आवारा बच्चों के खेल थे जिनका पढ़ने-लिखने से वास्ता नहीं था। पढ़-लिख तो मैं क्या ही पाय...