आपको पतंग उड़ाना आता है?

आसमान में उड़ती पतंगें मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम नहीें! और उनको उड़ाने में लगे सधे हुए हाथ किसी जादूगर के जैसे लगते है हमेशा। 

तीन बरस पहले की बात है एक शाम जब मैं पनकी नहर के किनारे बैठा था , एक सात-आठ बरस के बच्चे ने मेरे पास आकर कहा कि मैं उसे पतंग उड़ाना सिखाऊँ। मैं पल भर को उस बच्चे की आँखों में झाँककर ये समझने की कोशिश करने लगा कि आख़िर उसे मेरे भीतर कौन सा पतंगबाज़ दिखाई दे गया।  मैंने उसकी गर्दन को नीचे करते हुए धीरे से उसके कान में कहा- मुझे पतंग उड़ाना नहीं आता। वो लगभग चौंक गया। संभवतः उसने अपने से बड़े लगभग सभी लोगों को पतंग उड़ाते देखा होगा। उसने कहा कि जब वो अपने गाँव जाएगा तब चाचा से पतंग उड़ाना सीखेगा। उसने ये भी कहा था कि वापस आकर मुझे भी पतंग उड़ाना सिखाएगा पर . . .  ये न थी हमारी क़िस्मत !

मुझे पतंगे उड़ाना नहीं आता। पतंग ही क्या , मुझे कंचे खेलना , गुल्ली-डंडा खेलना , लट्टू नचाना (आदि) नहीं आता। इस तरह के खेलों के लिए हमे घर से छूट नहीं मिली थी । कथित रूप से ये खेल आवारा बच्चों के खेल थे जिनका पढ़ने-लिखने से वास्ता नहीं था। पढ़-लिख तो मैं क्या ही पाया पर मैं उन बच्चों में कभी शामिल नहीें हो सका । शोर मचाते,  दौड़ते-भागते, ऊधम काटते उन बच्चों में मेरा नाम कभी नहीं आया।

इन दिनों घर पर हूँ और पाँच बजते-बजते शोर बढ़कर कमरे मे दाखिल होने लगता है। पतंगों का जादूई शोर , उनको उड़ाते नन्हे जादूगरों का शोर। मैं छत पर आकर आश्चर्य-विस्मय और कौतूहल भरी दृष्टि से निहारता रहता हूँ नीले-सफेद आकाश में अनगिनत रंग भरती पतंगों को। मैं आज भी इन बच्चों में शामिल नहीं हो सकता। एम.ए. , बी.एड. का सारा ज्ञान मिलकर मुझे लट्टू नचाना नहीं सिखा सकता। जे.आर.एफ. लैटर के बूते पर मैं कंचे खेलना नहीं सीख सकता। कामायनी की व्याख्याओं से ज़्यादा मुश्किल है कटकर गिरती पतंग को भागकर लपक लेना। मुक्तिबोध को समझने से ज़्यादा कठिन है पतंग में धागा बांधना। 

ये बच्चे यूपीटैट और सीटैट के नम्बर नहीं पूछते। ये तो बस इतना पूछ देते हैं - " भैया आपको पतंग उड़ाना आता है? "

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