. . . . मज़दूर आ रहे हैं

मज़दूर आ रहे हैं । 

वे आ रहे हैं क्योंकि शासन प्रशासन उन तक नहीं जा पाया ।
वे आ रहे हैं क्योंकि वो शहर उनको रोकने की शक्ति नहीं जुटा पाए जिनको बसाने में उनके कंधों ने बोझ उठाया था , जिस को बसाए रखने में उनके जिस्म दोहरा गए थे ।

बच्चों को छोड़कर घर-घर काम करने वाली हज़ारों-हज़ार महिलाएं  आज अपने बच्चों को लिए सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय कर रही  है । जिन घरों में सुबह-शाम की जीवन शैली उन पर निर्भर हुआ करते थी, उनमें से कोई भी घर इनको रोक पाने में सक्षम नहीं हो पाया ।

मेरा एक दोस्त दिल्ली के आकर्षण से खिंच कर वहां गया था, कई साल वहां रहने के बाद घटनाक्रम कुछ यूं बना कि वापस उसे यही लौटना पड़ा । आज वह सामान्य बातचीत में भी कह देता है कि ''दिल्ली किसी की नहीं हो सकती''। असल में शहरीकरण ने आंखों में चकाचौंध तो खूब भरी पर गरीब का पेट भरने में वो काफ़ी सफल नहीं हो सका । संविधान से जीवन और आजीविका की गारंटी मिलने भर से जीवन और आजीविका का मिलना और उसका बना रहना सुनिश्चित नहीं होता ।

मोबाइल जर्नलिज्म के इस दौर में उन मज़दूरों की पीड़ा , उनके दर्द को बयां करते ना जाने कितने ही चित्र हम तक आए । बच्चों को गोद में उठाए,  सामान को कंधे से लटकाए लोग पैदल चल रहे हैं । साइकिल, रिक्शा, ऑटो , ठेला, ट्रक हर वाहन से .... मज़दूर आ रहे हैं ।

मेरी निगाह ठहर जाती है उनके नंगे पैरों पर और मैं ये सोचने को मजबूर हो जाता हूं कि आखिर वो कौन से कारण रहे जो उनको अब तक उन शहरों में रोके हुए थे जो शहर उनके पैरों को एक जोड़ी चप्पल तक उपलब्ध न करा पाए ।  अपने नंगे पैरों को घिसटते हुए, सड़कों को लाल करते हुए, सभ्यता के सीने पर अपने निशानों को छोड़ते हुए , एक दोने खिचड़ी के बदले अपनी बेबसी को किसी फ़ोन की सेल्फ़ी में कैद करा कर, चलते- रुकते -थकते -हांफते . . . .  आख़िरकार मज़दूर आ रहे हैं । 

यह मेट्रोसिटी -  मेगासिटी का तमगा हासिल करने वाले बड़े-बड़े शहर दम भर पाते हैं क्योंकि छोटे-छोटे गांव और कस्बे (खासकर उत्तर भारत के) इनके लिए कुर्बानी देते हैं । छोटे-छोटे क्षेत्रों से निकलकर लोग अपना पूरा का पूरा जीवन खपा कर इन बड़े शहरों को और बढ़ा बनाते हैं । पर इसके बदले में उन्हें क्या मिलता है . . . न तो समाज इनको खुशियां दे पाता है और न सरकार उनके दुख बांट पाती है।  सरकार अगर कुछ बांट सकती है तो वो है - राशन । प्रति यूनिट 5 किलो चावल के साथ एक परिवार को 1 किलो चना ; क्योंकि अखबार में मौजूद डाटा के अनुसार चना में इतने प्रकार के तत्व-विटामिन पाए जाते हैं कि ये आपकी इम्यूनिटी को झट से स्ट्रांग कर देगा । (मुझे याद आ रहा है कि लगभग 10 से 12 साल पहले जब अहहर(तूर) की दाल के दाम आसमान छू रहे थे तब  सरकार ने उसके विकल्प के तौर पर मटर की दाल को प्रस्तुत किया था और दुनिया में खोजे गए सभी लवणों- खनिज -विटामिनों की मौजूदगी उस मटर की दाल में बताई गई थी) पर वास्तविक समस्या यहां यह 1 किलो चना को एक महीने कोई परिवार कैसे चला सकता है । घर के हर सदस्य को उसके लाभ कैसे मिल  सकते हैं ।

मिलने से याद आया कि . . . . जो मज़दूर रास्ते में है शायद उन्हें यह राशन भी नहीं मिल पा रहा होगा । वैसे भी उन्हें क्या ही मिल पाता है ! शहरों में काम करने वाले अधिकांशतः मजदूर असंगठित क्षेत्र के कामगार हैं जो हमारे उद्योग तंत्र का एक बड़ा हिस्सा होने के बावजूद हमें प्रत्यक्ष रूप से नजर नहीं आता । इसमें भी एक बहुत बड़ा हिस्सा महिलाओं का है जो अपनी झोपड़ियों में,  अपने घरों में भीतर ही कताई ,बुनाई , पिसाई , छपाई , पैकेज़िंग जैसे कामों में लगे हैं । कामगारों के इस वर्ग तक तो कुछ भी नहीं पहुंचता कभी भी।  न उदारीकरण और न निजीकरण के फायदे, न कोई लाभांश , न श्रम कानूनों की छांव,  न सप्ताहिक छुट्टी,  न मातृत्व अवकाश ।
भय और असुरक्षा के इस दौर में सोफ़े पर सपरिवार बैठकर इस पलायन की आलोचना करना बहुत आसान है... क्योंकि लॉकडाउन  में बोर हो रहे लोगों को बात करने के लिए मुद्दा चाहिए।  माइक और कैमरा लेकर इन दृश्यों को फ़िल्माते न्यूज़ चैनल्स को काफ़ी हद तक सिर्फ़ टीआरपी चाहिए  । 'जब रोम जल रहा था तब नीरो वंशी बजा रहा था ' जैसी लाइंस फ़ेसबुक पर शेयर करने वालों  को दबाकर लाइक और कमेंट चाहिए ।  पर मज़दूरों को इस अजीब से माहौल में केवल अपना घर चाहिए,  परिवार चाहिए,  भर पेट खाना चाहिए ।

अगर भारत रोम है तो हमें मान लेना चाहिए कि हम सब में एक नीरो है जो चैन से वंशी बजा रहा है। 

मज़दूर चल रहे हैं , मज़दूर थक रहे हैं,  मज़दूर सो रहे हैं ... उनके ऊपर से गाड़ियां गुजर रही हैं और मज़दूर मर रहे हैं । नौकरशाहों की संवेदनहीनता का शिकार होते हुए मज़दूर आ रहे हैं अपने गावों तक _ मृत देहों के साथ , एक ही ट्रक में सफ़र करते हुए । 

ज़मीन के शहरों - गांवों के साथ-साथ अब ऊपर वाले के यहां भी मची है हलचल कि ---
 
. . . . . मज़दूर आ रहे हैं ।

- शिवम् सागर । 

Comments

  1. बहुत खूब लिखा जनाब और बेहद सटीक........मानवीय संवेदनाओं को शब्दों में पिरोना तो कोई आपसे सीखे।🌸

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  2. बहुत ही स्पष्ट शब्दों में तुमने सबको बता दिया कि इस त्रासदी में वे किस पायदान पर खड़े हैं और क्या योगदान दे रहें हैं............ यही है शायद लेखन का वो उच्चतम बिंदु जो सारे लेखकों का एक सपना होता है ,और आप करीब करीब वहाँ पहुँच ही चुके है....।। ❤️❤️

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  3. शानदार प्रस्तुति
    https://thehkv07.blogspot.com

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    1. शायद लिंक ओपन नही हो रहा😊

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  4. हम अक्सर कह देते है की आप निकटतम भविष्य के काफ़ी अच्छे लेखक होंगे तो इसका मतलब ये नहीं होता की हम मसखरी कर रहे होते है, मुझे पूर्ण विश्वास है तब ये बात कहते है

    और उसका जीता जागता उदहारण है ये ब्लॉग, हमारे पास कोई प्रतिक्रिया शेष ना बची 🙏🙏🙏

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    1. क्या होंगे औय क्या नहीं ये सब तो अलग बातें है ....बस वाणी मां की कृपा मिलती रहे 🌷🌷🌷

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