असुविधा के लिए खेद है ।

''कौन सी दुनिया में रहते हो तुम ? कितना कुछ झेला है हिंदुस्तान ने इन लोगों की वजह से...आज तुम जैसे कुछ लोग कुछ समझते ही नहीं ।''....... 
'' राजपूतों और मराठों के इतिहास को मिटा रहे हैं तुम जैसे लोग ।''.....   
''क्या हो गया है सभी हिंदुओं को '' ....... 
''पाकिस्तान शिफ्ट हो जाना चाहिए '' ...... आदि आदि ।


ईद मुबारक़ के स्टेटस लगाने से पहले ही मुझे पता था कि हर बार की तरह इस बार भी कई जगह से तीखी प्रतिक्रिया आएंगी।  अब जो भी हो मैं ऐसा ही हूं ।

और वास्तव में ही . . .मैं ना जाने कौन सी दुनिया में रहता हूं . . . जो मेरे आस- पास आने वाले और धीरे-धीरे मेरे खास बन जाने वाले अधिकांशतः लोग अपनी जाति- धर्म की उन 'सो कॉल्ड' छवियों से दूर,  बहुत दूर होते हैं जिन छवियों के कारण उन्हें प्रशंसित  या दमित किया जाता रहा है। 

 मैं ऐसे मुस्लिमों को जानता हूं जिन्होंने अपने कमरे में राधा कृष्ण की मूर्ति रखी हुई है,  जिन्होंने अपने आँगन में तुलसी का पौधा लगाया हुआ है । ऐसे ब्राह्मणों को जानता हूं जो उर्दू से लेकर नमाज़ पढ़ने तक के तौर तरीकों से वाकिफ़ हैं ।  राजपूत और यादव अपनी जिस ठसक के  लिए मशहूर है. . . मेरे यादव दोस्त उस ठसक मे कभी नहीं दिखते .... ना ही मेरे राजपूत दोस्त उस खांचे में फिट बैठते हैं। एक जाति विशेष के लोगों , जिसको हमारी पुरातन व्यवस्था ने पैदाइशी रूप से पठन-पाठन जैसे कार्यों से अलग रखा उसी समुदाय के अपने साथियों को जब परीक्षाओं में ज्यादा अंक लाते,  प्रतियोगिताओं में तर्क-वितर्क करते देखता हूं तो अलग ही खुशी होती है । शेक्सपियर याद आ जाते हैं कि गुलाब की खुशबू ही उसकी पहचान है ।

महाभारत के पूर्व अपने उपदेशों में 'श्रीभगवान' कहते हैं कि - ''स्वधर्मे निधनं श्रेय  परधर्मो भयावहः'' || 3.35|| अर्थात अपने धर्म में मर जाना श्रेयस्कर है,,, किंतु अन्य धर्म भयावह हैं । अब ध्यातव्य यह है कि स्वधर्म और परधर्म क्या है ? महाभारत का युद्ध मध्यकालीन भारत में नहीं लड़ा गया था और अर्जुन के सामने कोई आक्रांता नहीं था,  कोई दूसरा धार्मिक ध्वज नहीं था । यहीं धर्म की परिभाषा भी महत्वपूर्ण हो जाती है । कहा जाता है कि- 'जो धारण करने योग्य हो वही धर्म है' । हमारे नियत कर्मों का समुच्चय हमारे धर्म की आधारशिला बनता है,  इसीलिए मनुष्य को मृत्युपर्यंत अपने नियत कर्मों में दृढ़ रहना चाहिए । अन्य के निर्धारित कर्मों का अनुकरण नहीं करना चाहिए । आध्यात्मिक और भौतिक स्तर पर यह कर्म अलग -अलग हो सकते हैं और एक ही समुदाय यहां तक कि एक ही परिवार के लोगों के मध्य में भी यह भिन्न-भिन्न हो सकते हैं और होते ही हैं । अगर मैं सिर्फ सनातन धर्म की बात करूं तो ही ना जाने कितने पंथ, संप्रदाय- शैव, वैष्णव ,शाक्त, गाणपत्य, सिद्ध, नाथ आदि चर्चा में आएंगे । यहां तक कि नास्तिकों को भी सनातनता का ही अंग माना जाता रहा है।  यानी 'ला-इलाहा' (कोई ईश्वर नहीं है ) की घोषणा के बाद भी आप सनातनी रहते हैं ।

 उपनिषद के लगभग अंत में 'श्रीभगवान' कहते हैं - सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज'' || 18.66 || सभी धर्मों को त्याग दो और मेरी शरण में आ जाओ । यह भगवान की शरण में आना क्या है ? आज अधिकांशतः हम धर्म को साध्य समझने लगे हैं जबकि वह एक साधन है - उस परम सत्य को पाने का,  उसके तेज को महसूस करने का , उसकी उदारता -उसकी उदात्तता को अपने मन में समेटने के प्रयत्न करने का । भिन्न-भिन्न  तरीकों से हम सब यही प्रयास करते हैं । 
 
और यही भिन्नता तो किसी सभ्यता को जीवित बनाए रखती है। कोई  बगिया किसी खेत से इसी मायने में  विशेष है कि वहां विविधता होती है ।

 'यूनिटी इन डायवर्सिटी' का चैप्टर केवल बोर्ड के एग्ज़ाम में आंसर लिखने के लिए नहीं होता । मुझे ध्यान आता है एक बार मुझसे कहा गया था कि - तुम अगले जन्म में मुस्लिम पैदा होना । मैंने जवाब दिया कि मुझे इसके लिए दूसरे जन्म की ज़रूरत नहीं।  अपनी कई मान्यताओं-धारणाओं में मैं ठीक-ठाक मुस्लिम हूं , ईसाई हूं ,जैन और बौद्ध भी ।  फिर प्रश्न हुआ कि गीता, क़ुरान, बाइबल आदि में से पहले किसे चुनूंगा  ।  मैंने उत्तर दिया कि अगर हो सके तो एक ही जिल्द में मड़वा लेंगे सबको । 
 
अब मैं क्या करूं मैं ? मैं ऐसा ही हूं ! मैं अपने दोस्तों को इस आधार पर नहीं छोड़ सकता  कि राजपूतों और मराठों के युद्ध सैकड़ों साल पहले उसी समुदाय/धर्म /मजहब से हुए थे जिससे वे आते हैं । मै इस बात की नींव पर संबंध  नहीं तोड़ सकता कि मेरे और उनके समुदायों के मध्य पिछले 600 से अधिक वर्षों से  विवाद रहा है और कथित रूप से अभी भी है .... फिर अगर ये मान लूं तब तो आधुनिक  समाजशास्त्र का ढांचा ही टूट जाएगा जिसे न जाने कितने लोगों ने कितने बलिदानों की ईटें भरकर  खड़ा किया है ।

क्या ही कर सकते हैं अब ? 

असुविधा के लिए खेद है ! बहरहाल ईद मुबारक़ ।

 ''मुझ को बुरा ,बहुत बुरा कहते हैं चार लोग 
 चारों मुझे अज़ीज़  हैं , चारों की ख़ैर हो 🌷❤'' - नामालूम


- शिवम् सागर ।

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