यूट्यूब वर्सेज टिकटॉक के बहाने स्त्री, किन्नर और समलैंगिक अस्मिता पर बात ।

चेतावनी - यहां मैं ना तो यूट्यूब पर बात कर रहा हूं और ना टिक-टॉक पर । मैं केवल और केवल  समाज के हाशिये पर खड़े लोगों की बात कर रहा हूं,,, जिन पर व्यंग्य तो बहुत होते है , पर बात नहीं होती । 

जब एक यूट्यूबर द्वारा यह कहा जाता है कि- '' इनका स्टेमिना ही 15 सैकेंड का है '' तब आप सभी को पता होता है कि वहां किस तरह के स्टेमिना की बात हो रही है । हम एक समाज के तौर पर शायद ही कभी इतने विकसित हो पाए कि किसी का विरोध करने के लिए,  अपनी विरोधी प्रतिक्रिया को दर्ज कराने के लिए हम उसके (या अपने ) धर्म, जाति, रंग ,क्षेत्र ,लिंग ,सेक्सुअलिटी ,बॉडी शेप आदि को बीच में ना लाएं 

टिक टॉक के कंटेंट को लेकर कई तरह के सवाल 'यूट्यूब वर्सेस टिक-टॉक' की चर्चा उठने से पहले ही उठने लगे थे । इस सो कॉल्ड ट्रेंड के आने से पहले ही अपने कंटेंट के कारण टिक-टॉक की आलोचना होती ही रही है । हालांकि आलोचना तो पब-जी की भी हुई । उसको एक नशे की तरह देखा गया , पर एक समय के बाद लड़ाई दंगो वाला यह खेल लड़कों का मनपसंद बन गया।  पब-जी खेलने वालों को 'विनर विनर चिकन डिनर' मिला और टिकटॉकर्स को ' छक्का' और ' मीठा ' संबोधन। 

..... और यह सब देन है उस पुरुष-सत्ता की जिसमें मैं ,आप और पूरा समाज घिरा हुआ है ।

क्या कारण है कि महिलाओं के लिए 'मर्दानी' शब्द सदैव एक सकारात्मक अर्थ देने वाला शब्द रहा जबकि पुरुषों के लिए 'जनाना' एक अपमान सूचक शब्द बना । 'अबला', 'वामा' , 'अर्धांगिनी' जैसे शब्दों के माध्यम से स्त्री को उसकी कमजोरी और आश्रित होने को बयां करता यह समाज जब उसकी वीरता, साहस और आत्मनिर्भरता को बयान करता है तब उसे 'मर्दानी' कह देता है ।  अक्सर घरों में 'बेटी' को 'बेटा' कह दिया जाता है । 'बेटा' कहना, 'मर्दानी' कहना जहां उसकी तारीफ के अर्थ में है, प्यार में और दुलार में है ;  वही 'जनाना' जैसे शब्द पुरुष को उसकी गरिमा से नीचे धकेलने के लिए हैं ।

पुरुष सत्ता ने हजारों सालों में समाज के लगभग पूरे भाग को ही एक ऐसे ही स्लीपर-सेल में तब्दील कर दिया है जो बिना अपने बॉस को जाने-पहचाने ही उसके लिए काम कर रहा है । समाज को केवल दो ही तरह के लिंगों की जानकारी है-  पुरुष और स्त्री। 
मंगलमुखी (किन्नर) समुदाय अज्ञातकाल से उसकी उपेक्षाओं का शिकार है । जबकि वास्तव में यह समुदाय एक तरह की दिव्यांगता का शिकार है,  जैसे अन्य प्रकार की दिव्यांगता से ग्रसित लोग जन्म लेते हैं, जीते हैं उसी प्रकार एक लैंगिक दिव्यांग भी । पर आज वह एक अलग लैंगिक समुदाय बनकर समाज और सत्ता के सामने खड़े दिखाई देते हैं , तो इसका क्या कारण है ?  क्योंकि पुरुष सत्तात्मक समाज वंश परंपरा पर आधारित है इसलिए उसमें ऐसे व्यक्ति का कोई महत्व नहीं जो अपने जैसी संताने नहीं उत्पन्न कर सकता । अतः लैंगिक असमर्थता के कारण एक व्यक्ति को समाज 'हीन' या फिर 'नगण्य' समझने लगता है।  अब अगर इस पर रिवर्स थ्योरी लगा कर देखें तो एक सामान्य पुरुष भी यदि किसी कारण संतानोत्पत्ति ना कर पाए तो एक तरफ जहां समाज भी उसे दबी जुबान से 'छक्का' और 'हिजड़ा' कह देता है वहीं दूसरी तरफ वह पुरुष खुद भी अपनी मर्दानगी ना साबित कर पाने के हीन भाव से ग्रस्त रहता है और कई बार ऐसे लोग गंभीर अपराधों की ओर बढ़ जाते हैं। 

दरअसल समाज यह स्वीकार नहीं कर पाता कि किसी व्यक्ति की लैंगिक रुचियां उसकी रुचियों से भिन्न या भिन्न-भिन्न प्रकार की हो सकती हैं।  लेकिन समलैंगिकता कानून पर फैसला देते समय अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया कि बहुसंख्य समाज की धारणा का सामान्यीकरण संभव नहीं है।  पर समाज तो खैर समाज ही है .... और ऐसे फैसले उसकी चेतना को सौम्य व समावेशी बनाने के स्थान पर उसे अधिक दृढ़ और कट्टर बनाते हैं ।  समलैंगिक पुरुषों को 'छक्का' और 'हिजड़ा' कहा जाना ना जाने कब से जारी है । और अब सामान्य पुरुषों को भी 'छक्का - मीठा ' जैसे संबोधनों के साथ-साथ स्त्रीवादी संबोधनों के तोहफे दिए जा रहे हैं । एक व्यक्ति , एक वर्ग को नीचा दिखाने के लिए , उसकी आलोचना करने के लिए हम दूसरे वर्ग और समुदाय का सहारा लेकर समान रूप से उसे भी अपमानित कर रहे होते हैं । या फिर हमे  यह  मान लेना चाहिए कि वास्तव में उस वर्ग को भी कभी सम्मानित समझा ही नहीं गया ।

यहीं समलैंगिकता वाले बिंदु पर थोड़ा और गौर किया जाए तो पता चलेगा कि वात्सायन और वराहमिहिर के ग्रंथों में इसकी चर्चा है । केवल भारत में ही 10 से 12 करोड़ समलैंगिक हैं । समलैंगिकता का अर्थ दो समान लिंग वाले व्यक्तियों का आपस में यौन संबंध स्थापित करना होता है । यह सब पता होने के बावजूद जब-जब समलैंगिकता की बात आती है  तब-तब हमारा दिमाग केवल समलैंगिक पुरुषों की ही छवि तैयार करता है .....केवल 'गे' । अधिकतर फिल्मों में भी समलैंगिकता के नाम पर केवल पुरुषों को दिखाया गया ... कई बार उन्हें बेहद घटिया किस्म के पात्र दिए गए और उतनी ही घटिया अदाकारी से उन्हे निभाया की गया ।  मतलब समलैंगिकता को जैसे और जितना हम स्वीकार कर भी पा रहे हैं तो यहां भी वर्चस्व पुरुषों के ही हाथ लगा । 'लैस्बियन' की अवधारणा को स्वीकारना तो 'गे' को स्वीकारने से भी अधिक बड़ी चुनौती है । पुरुष-सत्ता दायित्वों,  अधिकारों सभी का निर्धारण लैंगिकता को मानक बनाकर करती है । और यह कहने की जरूरत ही नहीं कि वह पुरुष को एक अंग विशेष के कारण अधिक सामर्थ्यवान मानती है । और इसी अंग विशेष के सामर्थ्य के चलते ये पुरुष-सत्ता यह तो किसी तरह स्वीकार कर सकती है कि दो पुरुष आपस में शारीरिक संबंध स्थापित कर सकते हैं पर यह नहीं मान सकती कि दो महिलाएं एक दूसरे को शारीरिक स्तर पर संतुष्ट कर सकती हैं ।

क्या लेस्बियन्स को इस क्षेत्र में भी अलग से संघर्ष करना पड़ेगा ?

क्या एलजीबीटीक्यू( LGBTQ) समुदायों को भारत विश्व के अन्य देशों की तरह कभी स्वीकार पाएगा ?

क्या आधी आबादी कभी आत्मसम्मान के साथ अपनी सो-कॉल्ड परिधियों को त्याग सकेगी ?

क्या समुदायगत भेदभाव कभी समाप्त हो सकता है  ?

क्या वास्तव में 377 धारा प्रभावहीन हो गयी है ?

क्या समुदायों के सामाजिक समावेशन के लिए अदालतें और सरकारें  कानून बनाएगी ?

खुद से सवाल करिये ।  क्योंकि इस पूरी व्यवस्था को हमारा समर्थन प्राप्त है । 

- शिवम् सागर ।


Comments

  1. बहुत ही अच्छा लिखा है......एक दम सटीक....... कैसे कोई हमारी पसन्द न पसन्द को अपनी रूढ़िवादी सोच का जामा पहना सकता है.....??? सच कहा तुमने बस एक लैंगिग विकलांगता के कारण हम किसी से उसका वजूद ही छीन लेते हैं...... वो भी समाज के पुनरोत्थान में अपना अहम योगदान दे सकते हैं पर हम बस एक अंग के न होने से उसे उसकी सारी धरोहरों से वंचित कर देते हैं..और ये सब करने के बाद मन में एक मलाल तक नहीं होता है कि हमने कुछ गलत किया है।....... काश ऐसी मानसिक विकलांगता का कोई इलाज हो पाता...😢😢😢

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    1. बहुत शुक्रिया भाई.... हमे इन संकीर्णताओं से बाहर निकलना ही होगा ... काफी कुछ बन चुका है और बहुत कुछ बनाना है अभी हमें 😊

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