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Showing posts from March, 2019

कुछ गीत सा

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जागता हूं रात आधी हो गई है नींद गुम है, सो गई है भले दुनिया एक लड़की जागती है, उतरना है मुझे उसके यादों वाले मुहल्ले में इसी से तो नींद से मैं दूर शब भर भागता हूं । फूल पीले चांदनी मे रंग अपना खो रहे हैं, सो रहे हैं सभी भंवरे कहॉ पर ये कौन जाने तुम मगर सारे सलीके जानती हो इसी से_ ऐ शबनमी लड़की तुझे मैं चाहता हूँ  ।           - शिवम् सागर । ❤

होली ....☺😊

#समीक्षित होली ना खेलने की कई वजहों में से एक वजह यह भी है कि मुझे होली खेलना नहीं आता........ हालांकि अभी तक बाजार में ''होली खेलने के 101 तरीके'' जैसी कोई किताब मुझे नहीं दिखी है और ना ही ...

मै वहाँ होना चाहता था ।

यह जो हाथों हमारे होता है यह जरूरी नहीं करें हम ही ।😑😑 मैं वहां होना 'चाहता' था और केवल 'चाहने' भर से ही कहीं 'होना' अगर संभव हो पाता तो . . . मैं वहां 'होता' भी पर 'चाहने' और 'होने' के बीच एक ...

सागर से समीक्षित तक ।

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वास्तव में , एक 'नाम' से मेरा मन कभी संतुष्ट नहीं हो सका, अपने लिए दर्जनभर नामों को प्रयुक्त करता रहा हूं मैं.... प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से,  कईयों को सार्वजनिक तौर पर... तो कईयों को बेहद निजी तौर पर ।  थोड़ा गौर करके देखता हूं तो इसमें एक मोहात्मक स्थिति भी स्पष्ट होती दिखती है __अनायास  (या सायास भी ) कोई एक संज्ञात्मक शब्द मुझे इस कदर लुभा जाता है कि वह मेरी दैनिक बातचीत में अपने दोहराव को दिनोंदिन बढ़ा लेता है और इसी प्रक्रिया के दौरान ही उस शब्द के गूढ़ अर्थ भी सामने आते ही रहते हैं,,,, परोक्ष अपरोक्ष रूप से_ और एक सीमा के बाद मुझे यह प्रतीत होने लगता है कि यह शब्द मेरे व्यक्तित्व का मानो सच्चा परिचायक है __ इसी शब्द को नाम होना चाहिए था मेरा । कुछ ऐसा ही 'सागर' के साथ है ___'सागर' से लेकर 'समीक्षित' तक के सफर में मैं 'प्रेम' , 'श्रेयांश' ,  'क्षितिज' ,  'फ़राज़' ,  'फ़लक' , 'निशीथ'... जैसे कई पड़ाव से गुजरा और आगे भी निश्चित ही गुजरूंगा। मुझे लगता है कि नाम प्रत्येक पल, प्रत्येक क्षण के हिस...

घनाक्षरी (नज़र मे मेरे )

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नज़र में मेरे कुछ ख्वाब उगते हैं रोज उनको छुपाता कभी तुमसे कहा नहीं । मेरे अरमान मुझे इतना बहाते पर , खुद को हूं ,थामे तेरे सामने बहा नहीं । पर आज कहता हूं भाव मैं बहा के कई मेरी जिंदगी में अब तुम हो कहां नहीं ? सुबह हो तुम मेरी शाम तुम दिन रात , तेरे बिन चैन एक पल को रहा नहीं  । शिवम सागर

कानपुर तुम गुनाहगार रहोगे मेरे हमेशा !

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गुजर रहा हूं .....कानपुर के ऊपर से , और कानपुर गुजर रहा है मेरे ऊपर से.....,दोनो रौंद रहे हैं एक दूसरे के सीने को । मै अफसोस भरी निगाहों से देख रहा हूं .......शहर को ,इस शहर को जो अभी भी जी रहा है तुम्हारे बगैर जबकि इसे थम जाना चाहिए था , इसे रुक जाना चाहिए था , इसको इतने हुकूक किसने दिये जो ये जी रहा है लगातार हर घंटे हर दिन, बढ़ रहा है बन रहा है भर रहा है नये नये लोगो से हर गुजरते पल के साथ । .......तो क्या ये शहर तुम्हे भूल गया , एक कवि की उद्घोषणा के बाद भी कि "रिशतों मे नया कभी/पुराने का विकल्प नही हो सकता " , इस शहर ने तुम्हे भुला दिया, यहॉ तक कि तुम्हारे वाकये को ज़हन से मिटा दिया । जैसे तुम यहॉ थी ही नहीं , जैसे तुम इसकी थी ही नहीं , जैसे कि तुमने यहॉ ज़िंदगी जी ही न हो , जैसे कि इस शहर से कोई राब्ता न रहा हो कभी भी.....। देखो इस शहर के लिए तुम छोड़ आई थी सब और इसने तुम्हे  ही भुलाकर तुम्हे बेहतरीन सिला दिया है । तुम भले ही अपना समझती हो अभी भी इसे पर यकीं करो इसने भुला दिया सबकुछ ....  तुम्हारा अक्स ,तुम्हारा नाम,  तुम्हारा गीत, तुम्हारे दिलकश नग्में .....