सागर से समीक्षित तक ।

वास्तव में , एक 'नाम' से मेरा मन कभी संतुष्ट नहीं हो सका, अपने लिए दर्जनभर नामों को प्रयुक्त करता रहा हूं मैं.... प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से,  कईयों को सार्वजनिक तौर पर... तो कईयों को बेहद निजी तौर पर । 
थोड़ा गौर करके देखता हूं तो इसमें एक मोहात्मक स्थिति भी स्पष्ट होती दिखती है __अनायास  (या सायास भी ) कोई एक संज्ञात्मक शब्द मुझे इस कदर लुभा जाता है कि वह मेरी दैनिक बातचीत में अपने दोहराव को दिनोंदिन बढ़ा लेता है और इसी प्रक्रिया के दौरान ही उस शब्द के गूढ़ अर्थ भी सामने आते ही रहते हैं,,,, परोक्ष अपरोक्ष रूप से_ और एक सीमा के बाद मुझे यह प्रतीत होने लगता है कि यह शब्द मेरे व्यक्तित्व का मानो सच्चा परिचायक है __ इसी शब्द को नाम होना चाहिए था मेरा ।
कुछ ऐसा ही 'सागर' के साथ है ___'सागर' से लेकर 'समीक्षित' तक के सफर में मैं 'प्रेम' , 'श्रेयांश' ,  'क्षितिज' ,  'फ़राज़' ,  'फ़लक' , 'निशीथ'... जैसे कई पड़ाव से गुजरा और आगे भी निश्चित ही गुजरूंगा।

मुझे लगता है कि नाम प्रत्येक पल, प्रत्येक क्षण के हिसाब से प्रत्येक पल और प्रत्येक क्षण को व्याख्यायित करने वाला होना चाहिए...... मेरा बस चले तो नाम देता चलूं हर पल__ गुजरने वाले हर पल को ।
#शिवम_सागर

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