मै वहाँ होना चाहता था ।
यह जो हाथों हमारे होता है
यह जरूरी नहीं करें हम ही ।😑😑
मैं वहां होना 'चाहता' था और केवल 'चाहने' भर से ही कहीं 'होना' अगर संभव हो पाता तो . . . मैं वहां 'होता' भी पर 'चाहने' और 'होने' के बीच एक दीवार है, शीशे की, जिसके पार सब दिखता तो है बेहद नजदीक सा पर उस दीवार की ऊंचाई और चौड़ाई चीन की दीवार जैसी है जिस के पार जाना नामुमकिन ; यह दीवार बनाए रखती है 'चाहने' और 'होने' के शाश्वत भेद को ।
4 साल पहले जब मैंने उसे खत दिया था तब नहीं पता था कि क्या होगा ,, सोचता था कि शायद वह खत ले ही ना .....पर चाहता था कि वह खत ले और उसने खत ले लिया । उस क्षण मैंने जाना कि ख्वाहिशों को जन्मने के लिए बेहद कम समय चाहिए होता है । मैं चाहने लगा कि वह इसका जवाब भी दे पर उसने नहीं दिया । बेचैन होते मेरे मन ने रोना चाहा पर मैं रो नहीं सका ...क्योंकि रोना चाहने और रोने में भेद है ।
अभी.... पिछले साल के आखिरी दिन.... जब वो मुझे छोड़ कर जा रही थी , मैं चाहता था कि वह एक दिन ही सही पर और रुक जाए... पर उसका जाना निश्चित था । मैंने चाहा कि मैं भी उसके साथ जाऊं पर ना जा सका । जिसे जहां पहुंचना था , पहुंच गया और जिसे नहीं पहुंचना था , नहीं पहुंचा । ऐसा ही होता आया है हमेशा से ।
चाहने और ना चाहने का फर्क लकीरों पर नहीं पड़ता इसीलिए अब अक्सर कुछ भी चाहने से परहेज करता हूं____ बचा करता हूं । पर मुश्किल यह भी है कि चाहने से चाह कर भी बचा नहीं जा सकता..., कभी भी नहीं । मैं एक बार फिर से दोहराउंगा कि किसी के चाहने से नहीं बनती कहानियां क्योंकि कहानियों को बनाने बिगाड़ने का अधिकार सुरक्षित रखा है ऊपर वाले ने अपने पास और वह कतई नहीं चाहता कि इंसानी हाथ उसके लिखे में हस्तक्षेप करे ............. या ऐसा करना चाहे भी ।
#सागर_समीक्षित ।
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