वो चली गई !
वो चली गई !
एक कवि द्वारा ''जाना हिंदी की सबसे खतरनाक क्रिया'' घोषित कर देने के बावजूद वो चली गई ।
उसने शायद कभी भी उस कवि को नहीं पढ़ा , उसने शायद कभी साहित्य ही नहीं पढ़ा ; उसने नहीं पढ़ी थी वो कविताएं भी.. जो बराबर लिखी जाती रही थी उसके लिए , उसी को शब्दों में समेट कर । उन सभी कविताओं को यहीं मेरे पास छोड़कर कर ......अंततः वो चली गई ।
मैं सोचता हूं कि अब कविताएं नहीं लिखूंगा कुछेक दिन और इस दौरान इकट्ठा कर लूंगा उसकी तस्वीरें और फिर मैं उसकी मुस्कुराती हुई तस्वीरों का एक कोलाज बनाऊंगा.... बहुत बड़ा सा... जिसके नीचे लिख लूंगा वही लाइन जो एक बार रोमांचित कर देने के बाद हर बार सामान्य सी लगी थी उनको -
''कहो प्रेयसी कैसी हो ? ''
हालांकि तस्वीरें उत्तर नहीं देंगी पर तसल्ली तो देगी ही , कम से कम सुन तो सकेंगी ही मेरे गीतों - ग़ज़ल दीवारों की मदद लेकर ।
उसे ना जाने कब यह भ्रम हुआ कि उसका चले जाना है मेरे जीवन के एक खंड का अंत... इसीलिए खुद को खंडकाव्य की नायिका मान इसे संपन्न करने की मंशा मन में लिए हुए आखिरकार वो चली गई ।
क्योंकि वह जा चुकी है इसलिए उसे अब यह नहीं मालूम कि जिस जिंदगी में एक खंडकाव्य को समाप्त करके गई है वह उस जिंदगी में पड़ चुकी है नींव एक महाकाव्य की ... अनेकानेक अध्यायों वाला एक महाकाव्य । विप्रलंभ श्रंगार का बेजोड़ नमूना बन गई है ये जिंदगी ।
उसे शायद कतई अफ़सोस नहीं होगा अपने चले जाने का...; जाने वाला वैसे भी अफ़सोस व्यक्त नहीं किया करता.... अफसोस - पीड़ा - दुख को व्यक्त करते हैं वे जो अभिशप्त हैं यहां शेष रह जाने के लिए.., जो नहीं जा सकते कहीं भी , कभी भी, किसी को भी छोड़ कर । मैं अभिशप्त हूं __ वो अभिसिंचित थी वरदानों से ..., वह स्वयं ही वरदान थी ; वह मुक्त थी ; इसीलिए अपनी मुक्तता प्रमाणित करने मात्र के लिए ही सही पर
वो चली गई ।
चैत्र शुक्ल तृतीया
संवत विक्रमी 2076
एक कवि द्वारा ''जाना हिंदी की सबसे खतरनाक क्रिया'' घोषित कर देने के बावजूद वो चली गई ।
उसने शायद कभी भी उस कवि को नहीं पढ़ा , उसने शायद कभी साहित्य ही नहीं पढ़ा ; उसने नहीं पढ़ी थी वो कविताएं भी.. जो बराबर लिखी जाती रही थी उसके लिए , उसी को शब्दों में समेट कर । उन सभी कविताओं को यहीं मेरे पास छोड़कर कर ......अंततः वो चली गई ।
मैं सोचता हूं कि अब कविताएं नहीं लिखूंगा कुछेक दिन और इस दौरान इकट्ठा कर लूंगा उसकी तस्वीरें और फिर मैं उसकी मुस्कुराती हुई तस्वीरों का एक कोलाज बनाऊंगा.... बहुत बड़ा सा... जिसके नीचे लिख लूंगा वही लाइन जो एक बार रोमांचित कर देने के बाद हर बार सामान्य सी लगी थी उनको -
''कहो प्रेयसी कैसी हो ? ''
हालांकि तस्वीरें उत्तर नहीं देंगी पर तसल्ली तो देगी ही , कम से कम सुन तो सकेंगी ही मेरे गीतों - ग़ज़ल दीवारों की मदद लेकर ।
उसे ना जाने कब यह भ्रम हुआ कि उसका चले जाना है मेरे जीवन के एक खंड का अंत... इसीलिए खुद को खंडकाव्य की नायिका मान इसे संपन्न करने की मंशा मन में लिए हुए आखिरकार वो चली गई ।
क्योंकि वह जा चुकी है इसलिए उसे अब यह नहीं मालूम कि जिस जिंदगी में एक खंडकाव्य को समाप्त करके गई है वह उस जिंदगी में पड़ चुकी है नींव एक महाकाव्य की ... अनेकानेक अध्यायों वाला एक महाकाव्य । विप्रलंभ श्रंगार का बेजोड़ नमूना बन गई है ये जिंदगी ।
उसे शायद कतई अफ़सोस नहीं होगा अपने चले जाने का...; जाने वाला वैसे भी अफ़सोस व्यक्त नहीं किया करता.... अफसोस - पीड़ा - दुख को व्यक्त करते हैं वे जो अभिशप्त हैं यहां शेष रह जाने के लिए.., जो नहीं जा सकते कहीं भी , कभी भी, किसी को भी छोड़ कर । मैं अभिशप्त हूं __ वो अभिसिंचित थी वरदानों से ..., वह स्वयं ही वरदान थी ; वह मुक्त थी ; इसीलिए अपनी मुक्तता प्रमाणित करने मात्र के लिए ही सही पर
वो चली गई ।
चैत्र शुक्ल तृतीया
संवत विक्रमी 2076
Enter your comment...शुभ
ReplyDeleteउसका जाना उसकी मजबूरी था,
ReplyDeleteया उसे अपनी जिंदगी से जाने देना उसकी ख़ुशी। कुछ इस तरह की बातें हुईं की ना उसकी मजबूरी का ज़िक्र हुआ ना उसकी खुशी का,
संयोग से वियोग की तरफ कदम बढ़ते गए।
ना जाने कब हम एक दूसरे से इतने दूर होते गए।
ये अभी तक समझ नहीं आया था कि उसे जाने दिया या वो खुद चली गयी।
कोशिश करूंगा दोस्त अगली बार यह समझने के लिए कि उसे जाने दिया है या वह खुद चली गई
Deleteजाना उनकी,शायद कोई मजबूरी हो।
ReplyDeleteहो सकता है पर कम से कम मजबूरी का बयान तो करना चाहिए
Deleteजाना उनकी,शायद कोई मजबूरी हो।
ReplyDelete😊😊❤
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