एक गुस्ताख़ ग़ज़ल ।
एक गुस्ताख़ ग़ज़ल ।
बार - बार जो करे दिल्लगी, उससे जिगर लगाना मत ।
नदी की धार बहायेगी पर तुम थमना बह जाना मत ।
मन की मर्ज़ी चलने देना उसको कभी दबाना मत ।
पर खुद पर भी हो साबित खुद ही उससे दब जाना मत ।
यही तो मेरे सातो दिन - बारहो महीनों का साथी
मेरे तन्हापन को भूले से भी कुछ कह जाना मत ।
दौड़ रहा है संग मे पर वो रक़ीब हमसफ़र नहीं
उससे बचकर रहना , मंज़िल का रस्ता बतलाना मत ।
शिवम् सागर ।।
Comments
Post a Comment