तृषित

जैसे सदियों की प्यास हो इसे .....जैसे होंठ पपड़ा आते हैं वैसे ही पूरी जमीन पपड़ा आई है... और बादल घुमड़ रहे हैं ...गरज रहे हैं उम्मीद और आशाओं के., पर ना जाने क्यों बंधे से हैं बरस नहीं रहे खुलकर ........बौछार से गिरा देते हैं रह-रहकर ,
दूसरी बूंद गिरने से पहले पहली समा जाती है  ......सूख जाती है...... निशान तक मिट जाता है उसका और जमीन ताकती रहती है ........करती है इंतजार मौसम की शुष्कता मंझा कर आ रही अगली बूंद का........
इस जमीन की दास्तां कितनी मिलती है मुझसे.......अरे यह क्या मुझे ऐसा क्यों लग रहा है जैसे मैं तब्दील हो रही हूं जमीन में और इन बादलों में नजर आ रहे हो तुम .......हां तुम ही ...
निष्ठुर कहीं के ।

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