मैं ,आकाश और रत्नप्रभा ।
नहीं.... रत्नप्रभा उसका नाम नहीं था.... बस वह ऐसे ही रत्नप्रभा थी । खुले आकाश के तले बैठे हम दोनों ....मैं जब- जब उसे देखता वह पहले से अधिक ही दमक रही होती •••••!
मेरी नजर एक नहीं पाती उस पर मैं पलके मूंद लेता .......झुका लेता अपनी नजर पर .......बंद आंखों में भी उसका आभास बराबर बना रहता ......जैसे सूरज को निहारने के बाद लगता है |
इसी वजह से मैं दिन में उसके साथ नहीं निकला कभी कि आखिर नूर से भरे दो प्यालो को एक साथ कैसे उड़ेल पाऊंगा आंखों में.......।
इसीलिए हम हमेशा रात में मिले........ रात पसंद थी इसलिए भी और इसलिए भी क्योंकि रात हो जाने के बाद ....रात होने का डर नहीं रहता और ......सारी रात चमकते रहते हैं तारे उसके शीशे से बदन पर.. चांद से चेहरे पर.... समंदर से आंखों में... जैसे.....मणियॉ ..... हां हां..... जैसे मणियॉ जड़ दी गई हो ||
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