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Showing posts from 2018

ऐ मेरे दोस्त ! भाग -3

ऐ मेरे दोस्त ! आज तुम्हारे भी आसपास हैं ऐसे बहुत से लोग जिनके साथ गुजर जाता है तुम्हारा दिन भी घोड़े पर चढ़े हुए किसी सवार सा धूल उड़ाते हुए..... जानता हूं .... हालांकि मैं यह भी कि __ज...

ऐ मेरे दोस्त ! भाग-2

ऐ मेरे दोस्त ! मुझे याद है कि .. किस तरह हम साथ साथ वक्त बिताते थे , गलियों सड़कों और शहर से बाहर भी साथ साथ जाते थे , तुम्हारे 15वें जन्मदिन पर मैंने दिया था नकली फूलों का गुलदस्ता .. ...

ए मेरे दोस्त!

ए मेरे दोस्त ! उस दिन जब_ बरसों के बाद मिले हम तो हमारे पास बेहद कम मुद्दे थे__बात करने लायक इसीलिए बात और भी कम हुई खामोशी थी सिर्फ तादाद में बहुत ज्यादा । इधर कई बरस बीत जाने के ...

कविताएं संपन्न हुई

मैंने उससे पूछा .....कि ........क्या तुम मिलने आओगी ? .......तो  उसने कोई जवाब ही नहीं दिया..... मैंने कुछ देर बाद फिर से पूछा कि क्या तुम मिलने आओगी ? वह इस बार भी खामोश रही |... पर खामोशी का मतलब हां नह...

इश्क पर ना गौर हो जाए

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विवेचना आज की ......27 सितंबर 2018

मतलब पूरा दिन निकल जाता है और आप उपलब्धि के स्तर पर लगभग 1 शब्द भी नहीं पा पाते..... ऐसा कुछ नहीं होता जो आप के क्षण को भी विलक्षण बना दे  ,,विशेष बना दे, भावना, संवेदना आदि के स्तरों पर...

प्रियतम

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___अचानक से पानी बरसने लगा .......बादल थे कल शाम से, पर अब आज शाम को पिघल रहे हैं  | पानी की छोटी-छोटी बूंदें बिछी जा रही है... जमीन हर बूंद के साथ और गीली होती जा रही है  | कुछ देर बाद यह जानना ...

समीक्षित 1

मैं चांदनी से  दिल का  हाल बयां करता हूं बस एक उसको अपना राजदां समझता हूं तू दिन में जो कहानी मुझसे छिपके पढ़ता है मैं रात में  उसी को  और आगे  लिखता  हूं |

इक गुस्ताख ग़ज़ल

उसने क्या-क्या कहा नाराज़गी में हमने  कुछ ना  सुना नाराज़गी में जब्त था जो जिगर में इक उमर से वही   दरिया   बहा  नाराज़गी   में मुझ में लाखों हैं कमियां ये बताया उसने है खत ...

मैं ,आकाश और रत्नप्रभा ।

नहीं.... रत्नप्रभा उसका नाम नहीं था.... बस वह ऐसे ही रत्नप्रभा थी । खुले आकाश के तले बैठे हम दोनों ....मैं जब- जब उसे देखता वह पहले से अधिक ही दमक रही होती •••••! मेरी नजर एक नहीं पाती उस प...

तृषित

जैसे सदियों की प्यास हो इसे .....जैसे होंठ पपड़ा आते हैं वैसे ही पूरी जमीन पपड़ा आई है... और बादल घुमड़ रहे हैं ...गरज रहे हैं उम्मीद और आशाओं के., पर ना जाने क्यों बंधे से हैं बरस नहीं रहे खुलकर ........बौछार से गिरा देते हैं रह-रहकर , दूसरी बूंद गिरने से पहले पहली समा जाती है  ......सूख जाती है...... निशान तक मिट जाता है उसका और जमीन ताकती रहती है ........करती है इंतजार मौसम की शुष्कता मंझा कर आ रही अगली बूंद का........ इस जमीन की दास्तां कितनी मिलती है मुझसे.......अरे यह क्या मुझे ऐसा क्यों लग रहा है जैसे मैं तब्दील हो रही हूं जमीन में और इन बादलों में नजर आ रहे हो तुम .......हां तुम ही ... निष्ठुर कहीं के ।